Friday, July 29, 2016

रमेशराज की चिड़िया विषयक मुक्तछंद कविताएँ




रमेशराज की चिड़िया विषयक मुक्तछंद कविताएँ
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-मुक्तछंद-
।। बहरहाल ।।
चिडि़या अब
साफ पहचानने लगी है
कि हर पेड़ के पीछे
चिड़ीमार बहेलिया है
बन्दूक या गुलेल के साथ।

चिडि़या अब
साफ जानने लगी हैं कि
मैदान में बिखरे हुए
गेहूं के दानों के पीछे
एक मजबूत जाल है
चिडि़यों के फंसाने के लिए
चुग्गे का लालच दे
बंदी बनाने के लिए।

चिडि़याएं अब संगठित हो रही हैं
बहेलिया की खूबसूरत
साजिशों के खिलाफ,
उनके चेहरे अब
तमतमा रहे है साफ-साफ।
अब शोर मचा रही हैं  
आकाश दहला रही हैं
टोल बनाकर उड़ती हुई चिडि़याएं
आक्रोश की मुद्रा से
जुड़ती हुई चिडि़याएं।

चिडि़याए अब
अविराम लड़ रही हैं
चिड़ीमार बहेलियों से
चोंच और पंजों को
तलवार-सा चलाते हुए
क्रान्ति-गीत गाते हुए।

ऐसे में
नाकाम होते जा रहे हैं
गुलेल के पत्थर
बन्दूक की गोली
रेशम के जाल
चिडि़यों का कुछ भी
बिगाड़ नहीं पा रही है
बहेलिए की साजिश
बहरहाल....
-रमेशराज


-मुक्तछंद-
।। चुगती हुई चिडि़याएं ||
टोल  बनाकर
दाना चुगती हुई चिडि़याएं
चहचहा उठती हैं
अपने बच्चों के साथ
उन्हें दाना चुगाते हुए
गाना गाते हुए।

टोल बनाकर
दाना चुगती हुई चिडि़याएं
सूखद भविष्य की
कल्पनाएं करती हैं
वसंत बुनती हैं
बाजरे के दानों के साथ।

टोल बनाकर
दाना चुगती हुई चिडि़याएं
आखिर क्यों नहीं समझतीं कि-
जमीन पर फैले हुए
बाजरे के दानों के पीछे
चिडि़मार बहेलिया है
गुलेल तानता हुआ
बन्दूक भरता हुआ
चिडि़या फंसाने के लिए
जाले फैलाता हुआ।
-रमेशराज



-मुक्तछंद-
।। पिजड़े में उड़ते हुए ।।
गर्मी के मौसम में
घोंसलों के बीच
अपने बच्चों के पास
बैठी हुई चिडि़याएं
उन पर छाते-सी तन जाती हैं
दाना चुगाते हुए
चिलचिलाती धूप से
बच्चों को बचाते हुए।

गर्मी के मौसम में
आकंठ प्यास में
डूबी हुई चिडि़याएं
गर्म रेत पर
छटपटाती हुई
मछलियां हो जाती हैं
प्यास में जीते हुए
प्यास को पीते हुए।

गर्मी के मौसम में
नदी किनारे
बैठी हुई चिडि़याएं
अपने भीतर महसूसती हैं
रोम-रोम में रेंगती हुई
एक सुख की नदी
पानी पीते हुए
भूख में जीते हुए।
+रमेशराज


मुक्तछंद
|| पिंजरे में कैद चिड़ियाएँ ||
बार-बार पंख फड़फड़ाती हैं
लहूलुहान हो जाती हैं
बन्द पिंजरे के भीतर
उड़ती हुए चिडि़याएं ।

चिडि़याएं बार-बार ताकती हैं
खूला हुआ आसमान
बेचैन हो उठती हैं
उड़ान के लिए
खुले हुए आसमान के लिए
पिंजरे के भीतर
पड़ी हुई चिडि़याएं
सख्त सलाखों से 
जड़ी हुई चिडि़याएं
चहचहाना चाहती हैं

ऐसे में
चिडि़याओं को
याद बहुत आती हैं
बच्चे और अण्डों के बात
पिंजरे के भीतर
सख्त सलाखों से
अपने माहौल से
बिछुड़ती हुई चिडि़याएं।

चोंच और पजों को
दांतेदार आरी-सा
बार-बार चलाती हैं
जोश दिखाती हैं
लहुलुहान हो जाती हैं
पिंजरे के बाहर
सुखतुल्ले छोड़ते हुए
वंसत के एहसास से
मुसलसल जुड़ते हुए
पिंजरे में उड़ते हुए।
-रमेशराज




-मुक्तछंद-
।। आग-आग होतीं चिडि़याएं ।।
कड़कड़ाते जाड़े के मौसम में
पहाड़ी चिडि़या
युद्धस्तर पर तलाशती है
दाना और गर्म पानी
अपने भीतर आग |

कड़कड़ाते जाड़े के मौसम में
दौड़ते-हाँफते हुए
गंधक के झरनों तक
पहुचती है चिडि़या।

चिडि़या
अपने घोंसले और
गंधक के झरने के
बीच की दूरी तय करने में
या तो लहुलुहान हो जाती है
या फिर
उनके भीतर की प्यास मर जाती है।

वैसे चिडि़या यह भी जानती है
कि जब कभी वह
लहूलूहान हुए बगैर
गंधक के झरनों तक पहुंच जाती है
तो उसमें नहाती है
अपनी प्यास बुझाती है
और फिर
गंधक के झरने और
गेहूं के खेतों के
बीच दूरी तय करने में
बर्फ-बर्फ होती हुई चिडि़या
आग-आग होने लगती है।
-रमेशराज


-मुक्तछंद-
।। लगातार उड़ते हुए ।।
एक मासूम चिडि़या
भरती ही उड़ानें
घने कुहरे के बीच
अपने पखों को फड़फड़ाते हुए।

चिडि़या जानती है कि-
सर्द रातों में उड़ानें भरना
कुहरे की सत्ता को ललकारना है,
बर्फीला सन्नाटा मारना है।

कुहरा बांध लेना चाहता है
चिडि़यों को सफेद लम्बे-चौड़े
डैनों के बीच।

कोहरे के मजबूत डैने
लगातार तलवार की तरह
काटती है चिडि़या उड़ते हुए
चिडि़या बदहवास-सी दौड़ती है
इधर-उधर सारी रात।
चिडि़या टटोलती है
सर्द मौसम के सीने में आग।

चिडि़या महसूसती है
कि कुहरे और
कड़कड़ाते जाड़े के बाबजूद
सूरज अभी मरा नहीं है।
वह उसे आमंत्रण दे रही है
ठंडे और निर्जीव आकाश के बीच
लगातार उड़ते हुए।
-रमेशराज


-मुक्तछंद-
।। बर्फीले पजों के बीच।।
सर्द रातों में
कुहरा बुनता है एक जाल
गहरे सन्नाटे के बीच
आतंक का।
पेड़ों की फुनगियों पर
बैठी हुई चिडि़याएं
लाख कोशिशों के बावजूद
अपने को मुक्त नहीं कर पातीं
है कुहरे से।

कुहरा बांध देता है चिडि़यों को
सन्नाटे और घनी सर्दी के बीच।
रात ज्यों-ज्यों गहराती है
कुहरा भरता है उड़ानें
खूंख्वार बाज की तरह
अपने सफेद डैने फैलाए हुए।

सर्द रातों में
ठन्डी हवा और कुहरे का होना
एक खूबसूरत चाल है मौसम की
चिडि़यों का वध करने के लिए।

सर्द रातों में
ठिठुरते जंगल के बीच
एक खूनी सत्ता का
एहसास दिलाता है कुहरा।
एक-एक चिडि़या को
अपने बर्फीले पंजों के बीच
चुपचाप दबाता है कोहरा।

पेड़ नाकाम कर देना चाहते हैं
कोहरे की हर साजिश।
पेड़ छुपा लेना चाहते हैं
समस्त चिडि़यों को
अपनी घनी पत्तियों के बीच।

सर्द रातों में-
पेड़ों का नंगा होना
बहुत भाता है कुहरे को,
ताकि वह शिकार कर सके
आसानी के साथ।

सर्द रातों में
पेड़ बेताबी से प्रतीक्षा करते हैं
सुबह की सूरज की।
पेड़ जानते हैं
कि सूरज का होना
मौत है कुहरे की।

पेड़ यह भी जानते हैं कि
सूरज मरी हुई चिडि़यों में
प्राण फूंक देता है
उड़ने की ताकत देता है
सन्नाटा तोड़ता है
सूरज के सामने 
आदमखोर शेर की तरह
दम तोड़ती है
कुहरे की खूनी सत्ता।
-रमेशराज
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 -रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़ -202001
mo.-9634551630 


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