रमेशराज
की कविता विषयक मुक्तछंद कविताएँ
------------------------------------------------------------
-मुक्तछंद-
।।
बोखलाई हुई कुर्सी की भाषा ।।
विधान
की ठीक नाक पर
एक
खूबसूरत चेहरा गिद्ध की तरह
चुपचाप
बैठ जाता है
और
फिर नोचने लगता है
प्रजातन्त्र
की मवाद भरी खाल,
हिंदुस्तान
के भूखे दिमाग में करता है
एक
गहरा सूराख,
खून
से रंग जाती है संविधान की नाक।
एक
खूबसूरत हाथ सुबह से शाम तक
चुन-चुन
कर सैकड़ों हत्याएं करता है
और
फिर हत्यायें हो चुकने के बाद
किसी
देवता की मुद्रा में आशीर्वाद देने लगता है।
सदन
में हर सभ्य आदमी
दिन
के उजाले में
भारतीय
सिक्के-सा दिखता है
और
रात के अंधेरे में
किसी
विदेशी मुद्रा में तब्दील हो जाता है,
राजधानी
के कुछ नामी तस्करों की
जांघ
पर सिर रखकर चुपचाप सो जाता है।
सारा
मुल्क पढ़ता है
एक
बौखलायी हुई कुर्सी की भाषा
काले
कानून के सत्तारूढ़ चुटकुले
संभावित
वसंत के टुच्चे मुहावरे
मेरे
सीने में सुलगता है
तिलमिलाती
कविता का आक्रोश,
गिलहरी-सी
मुझे कुतरती है समाजवादी टोपियां
एक
औरत की प्रसन्नचित्त मुद्राएं।
यही
वह स्थिति है जहां मैं कविता को
किसी
चमचमाते खंजर की तरह इस्तेमाल करता हूं
शब्दों
में / इस घिनौनी व्यवस्था के खिलाफ
किसी
मसीहा की तरह बार-बार उभरता हूं।
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
निर्वाह।।
उफ्
कितना घिनोना हो गया युगबोध
ठीक
एक थानेदार द्वारा
हवालात
में बन्द अबला के साथ
बलात्कार
की तरह।
चर्चाओं
में चिपचिपाता है / एक बलकृत रक्त।
थाने
पर अपनी समूची शक्ति के साथ
पथराव
कर रही है कविता।
एक
प्रत्यक्ष गवाह की तरह
सच्चाई
उगल रहे हैं / शब्द।
न्यायकर्त्ता
/ संविधान के निर्माता / बलात्कारी पुलिस
कहीं
न कहीं एक दूसरे से कनेक्ट हैं।
ऐसे
में सोचता हूं
क्या
हवालात में बन्द औरत के साथ
न्याय हो पायेगा,
जिसने
उस लाला के सिर पर
गुलदस्ता
दे मारा था
जो
कि कल रात
उस
औरत की इज्जत लूटने पर आमादा था।
काफी
डर लगता है यह सोचते हुए
कि
गुनाहों की अशोक वाटिका में कोई नैतिकता
जनतंत्र
के कथित रावण को न रिझा रही हो,
या
मजबूरीवश
वैश्यावृत्ति
पर न उतर आयी हो कोई इमानदारी |
आजकल
बड़ा मुश्किल हो गया है
कविता
/ ईमानदारी और युगबोध का
एक
साथ निर्वाह,
जबकि
हवालात में एक बलात्कार की शिकार
औरत है- कविता।
-रमेशराज
मुक्तछंद
||
नपुंसकों के बीच ||
मेरे
भाई
कविता
में
और
आग भरो
मेरे
भाई !
बंदूक
की तरह
इस्तेमाल
करो शब्दों को |
अब
समय आ गया है
जबकि
भाषा तुम्हाकरे हाथों में
हथगोले
की तरह हो
जिसे
तुम फैंक सको
सड़ांध-भरी
व्यवस्था पर
पूरे
आक्रोश के साथ |
मेरे
भाई
इस
तरह तिलमिलाते हुए
विचारों
को
महज
कागजी इश्तहार बनाकर
नपुसकों
के बीच
बाँटने
से कुछ नहीं होगा |
विचारों
को
डायनामाइट
बना डालो
मेरे
भाई
उड़ादो
इससे
मजदूरों
गरीबों शोषितों
के
खून से फलती हुई
सेठों
/ तस्करों की तोदें
टुच्चे
नेताओं की
कोरी
दलीलों का तिलिस्म
अय्याशों
की
काच-निर्मित
हवेलियां
जिनमें
हर रात
होता
है बलात्कार
अब
तो
कोई
जोश भरी
बात
करो मेरे भाई
कविता
में
और
आग भरो
मेरे
भाई !
जरा
पहचानो
तुम्हारें
इर्दगिर्द
कोरे
आश्वासनों का
एक
आदमखोर जंगल उग आया है
जिसमें
शिकार खेल रही है
एक
सफेद शेरनी
एक
चीता
भूख
से विलखते
बच्चों
की आवाज पर
कान
टिकाए है
कुछ
भेडिये घूम रहे हैं
आदमी
को सूंघते हुए
इस
आदमखोर जंगल को
कुछ
तो बदलो मेरे भाई
कविता
में
और
आग भरो
मेरे
भाई !
+रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
ऐ मेरे जनवादी दोस्त।।
ऐ
मेरे जनवादी दोस्त!
दरअसल,
शहर की सारी सुविधाएं भोगकर
तुम
मुंशी प्रेमचन्द होना चाहते हो |
एअर
कन्डीशन में बैठकर
होरीराम,
धनिया गोबर जैसे पात्रों को
सिर्फ
कल्पनाओं से गढ़ना चाहते हो।
महज
कागजी घोड़ा है दोस्त
तुम्हारा
ये थोथा जनवाद!!
मानता
हूं तुम्हारे सारे पात्र
मुशी
प्रेमचन्द की ही तरह
गांव
से उठाये हुए / भयंकर भूख से
पीडि़त
होते हैं।
पर
एक बात पूंछू दोस्त!
भूख
के चाकू से अन्दर ही अन्दर
धीरे-धीरे
खुरचता हुआ लहुलुहान प्रेमचन्द
क्या
तुमने भी महसूस किया है
अपने
अन्दर कभी?
ऐ
मेरे जनवादी दोस्त!
तुम
जहां देखो वहां
अपने
को जनवादी घोषित करते फिर रहे हो
जब
कि मैं जानता हूं
तुम
एक सस्ते होटल में
एक
निम्नवर्गीय व्यक्ति के साथ
चाय
नहीं पी सकते,
सड़े
हुए कुत्ते की-सी
बू
आती है तुम्हें
किसानों,
मजदूरों के पसीने में |
असलियत
तो ये है दोस्त!
भूख,
किसान जैसे शब्द
रट
लिए हैं तुमने ‘गोदान’ जैसी किताबों से।
ऐ
मेरे जनवादी दोस्त!
जब
भी किसी पत्रिका में
तुम्हारी
कविता या कहानी छपती है,
तुम
अपने मित्र समीक्षकों से
लेख-प्रतिक्रियाएं
छपवाते हो
आपके-पत्र
स्तम्भ में
जुड़कर
जनवादी धारा से
हैड
लाइनों में उभर आते हो।
इस
तरह ऐ मेरे जनवादी दोस्त!
खूब
पब्लिसिटी कराते हो।
साहित्य
न तो हरिजन समस्या है
न
मिल में होने वाली मजदूरों की हड़ताल
न
एक किसान पर बढ़ता हुआ सूद है,
और
ग्रामीण युवती पर किया हुआ बलात्कार।
साहित्य
न भूखे की रोटी है
और
न लालाजी की रसगुल्लों से भरी हुई तोंद,
फिर
भी न जाने क्यों तुम्हारी हर कविता या कहानी
भूख
से विलखती हुई मुनिया, रामबती,
रामकली के साथ
बलात्कार
करते हुई टाटा, बिडला या
डालमिया की ही
तिजोरी
तक पहुंचती है।
जबकि
मैं जानता हूं-
तुम
पूंजीवादी व्यवस्था के
सबसे
बड़े पोषक हो,
नेपथ्य
में भारतीय समाज के
सबसे
बड़े शोषक हो।
छद्म
नामों से सैक्स कथा लिखते हो
पैसे
की खातिर ऐ मेरे जनवादी दोस्त
तुम
न जाने कहां-कहां बिकते हो।
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
साथियों के नाम ।।
अब
जबकि
एक-एक
कर तुम्हारे साथी
बनियों
के वहीखातों का
आचरण
बन चुके हैं,
पूंजीपतिओं
के सामने
अपनी
आत्मीयता की
लार
टपका रहे हैं
अपने
आत्मसम्मान का
मर्सिया
गा रहे हैं।
ऐसे
में
अकेले
सिर्फ अकेले
आदमीयत
का दर्द
पीने
के अलावा
रास्ता
ही क्या है रमेशराज!
नपुंसकों
के साथ
मुट्ठियां
तानने से
होता
है ही क्या है रमेशराज!
अब
जबकि
एक-एक
कर तुम्हारे साथी
अनैतिकता
की जाघों में
कर
रहे हैं
आदर्शों
का वीर्यपात
किसी
मासूम
मजबूरी
की
छाती
मसल रहे हैं
उनके
कामातुर हाथ,
ऐसे
में मानवता की
किस-किस
बिटिया को
बचाओगे
रमेशराज!
जबकि
इस
हरेक बलात्कारी साजिश में
[चाहे
अनजाने सही]
खुद
को भी
शरीक
पाओगे रमेशराज!
अब
जबकि
इतिहास
के किसी
दुर्गन्ध-भरे
हिस्से में
दम
तोड़ रही है
तुम्हारे
साथियों की
नैतिकता
किसी
टुकड़खोर कुतिया की तरह
अपनी
पूंछ हिला रही है
इस
व्यवस्था के सामने
उनकी
बगावत।
अब
वे सच्चाई की राह पर
चलते-चलते
इतना
थक चुके हैं कि
ज्योतिषियों
को
हाथ
दिखाने चला गया है
उनके
भीतर का संघर्ष।
किसी
पीर के मजार पर
भाग्य
की अगरबत्ती
जला
रहा है
उनका
विवेक।
ऐसे
में
अकेले
सिर्फ अकेले
नपुंसकता
के खिलाफ
तुम्हें
लड़ना होगा रमेशराज!
पुरुषत्व
का
एक
नया इतिहास
गढ़ना
होगा रमेशराज!
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
कविता और आदमी के बीच ।।
मत
करो मेरे दोस्त
कविता
के पक्ष में कोई बात
तुम्हें
पता नहीं शायद
जो
लोग कविता और आदमी के बीच
पुल
बना रहे हैं
वे
सब के सब
नकली
सीमेंट लगा रहे हैं।
मत
करो मेरे दोस्त
मेरे
दोस्त मत करो
कविता
के पक्ष में कोई बात।
दरअसल
कविता में जो लोग
हथियार
उठाये चल रहे हैं
वे
गिरगिट की तरह
रंग
बदल रहे हैं।
अब
कोई फर्क नहीं रह गया है
आदमी
कविता और गिरगिट के बीच।
मत
करो मेरे दोस्त
मेरे
दोस्त मत करो
कविता
के पक्ष में कोई बात।
तुम
जानते नहीं शायद
आज
की कविता
एक
ऐसी जवान बेटी है
जो
कवि की
नंगी
जांघ पर लेटी है।
ऐसे
में यदि
तुम
किसी दोगलेपन के खिलाफ
आवाज़
उठाओगे
तो
साहित्य के
नासमझ
मसीहा पुकारे जाओगे।
भूख
और मेहनतकशों पर
लिखी
गयी कविताएं
अब
भूखे के हाथों का निवाला
और
मेहनतकश की
मजदूरी
छीन लेती हैं,
एक-एक
आदमी के
सुख
सपने बीन लेती हैं।
तुम
कवि की जिस ईमानदारी की
भरम
पाले हो
वह
उसकी एक ऐसी लुगाई है,
जिसे
उसने व्यभिचार से पहले
हर
रात दारू पिलाई है।
इसीलिए
करता हूं
मत
करो मेरे दोस्त
मेरे
दोस्त मत करो
कविता
के पक्ष में कोई बात।
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
सोच का विषय ।।
कहां
से शुरू करूं
आदमी
के कविता होने प्रक्रिया
कविता
से आदमी बनने का अहसास।
जबकि
आदमी को
भागलपुर
में अन्धा कर दिया है,
और
बागपत में
कभी
का हो चुका है
कविता
के साथ बलात्कार।
कविता
जो आसाम में
संस्कृति
की रक्षा के लिए
एक
अनवरत लड़ाई है
साम्प्रदायिक
दंगों में तब्दील हो गई
और
आदमी की हर नस्ल
गिद्ध-चील
हो गयी है।
कहां
से शुरू करूं
आदमी
से कविता होने की प्रकिया
कविता
से आदमी बनने का अहसास।
जबकि
आदमी
रामाराव
की तरह
बेहूदगी
के लिए
देश
के सोच का विषय बना हुआ है
और
रामलाल का हाथ
लोकतंत्र
खून से सना हुआ है।
जबकि
कविता भ्रष्टाचार में लिष्त
होने
के बावजूद
भ्रष्टाचार
के खिलाफ
झंडा
उठा रही है,
आदमी
को नाजिर खान बनाकर
अफीम
की तस्करी करा रही है।
कहां
से शुरू करूं
आदमी
के कविता होने की प्रक्रिया
कविता
से आदमी बनने का अहसास।
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
ठीक ।।
कविता
जिंदा हो रही है लगातार
संवेदना
के स्तर पर
दुःख-दर्द
के बीच
मर-मर
कर जीते हुए
ईमानदारी
और सच का
जहर
पीते हुए।
जबकि
आदमी
नैतिकता
और इन्सानियत के स्तर पर
आत्महत्या
कर रहा है
सच
और ईमानदारी की
राह
पर चलने से डर रहा है।
युग-युग
से
हवा
झूलने के बाद
यथार्थ
की जमीन पर टिक गये हैं
अब
कविता के पांव |
जबकि
आदमी
हैड्रोजन
गैस से भरे
गुब्बारे
की तरह
कल्पना
के आकाश पर उड़ा जा रहा है।
ईश्वर
और मोक्ष की
बेहूदी
खोज में
चुका
जा रहा है।
आज
कितनी अलग-थलग
कितनी
परस्पर विरोधी
दो
चीजें हो गयी है
कविता
और आदमी,
ठीक
साम्यवाद और पूंजीवाद की तरह,
ठीक
भगतसिंह और गांधी की तरह।
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
कविता ।।
वे
कहां तक बदलेंगे
शब्दों
की तमीज
वे
कहां तक लटकायेंगे
भाषा
पर सेंसर की तलवारें
जबकि
हिन्दुस्तान के
सबसे
बड़े साम्प्रदायिक
अश्लील
और भ्रष्ट शब्द
आज
नेता और मंत्री हैं।
शायद
उन्हें पता नहीं
कि
उनकी तलवारें
जब
भी भड़भड़ाकर टूटेंगी
गर्दन
उन्हीं की साफ होगी
नाक
उन्हीं की कटेगी।
वे
कहां तक पहनेंगे
अपनी
सुरक्षा के लिए
संविधान
के लोहे के कवच
वे
कहां तक लगायेंगे
अपनी
आंखों पर
टुच्चे
विधेयकों के
काले
चश्मे,
जबकि
शब्दों के लिए
एक
बारीक-सा पर्दा है
हर
लोहे का कवच।
काले
चश्मों को
एकदम
पारदर्शी
बना
देती है कविता।
वे
भूल रहे हैं शायद
कविता
के ऊपर
जब
भी लादे गये हैं
दमन
के पहाड़
तो
भीतर ही भीतर
तिलमिलाते
शब्द
एक-एक
कर
डायनामाइट
में तब्दील हो गये हैं
शब्दों
का मिजाज
बदल
नहीं पाया है
आपातकाल
से लेकर
कोई
भी काल।
उन्हें
आज भी समझ लेना चाहिए
शब्द
कभी चुकते नहीं
ये
समय की मांग के साथ
पैने,
धारदार, विस्फोटक
और
गुस्सैले होते चले जाते हैं।
यहां
तक कि
एक
लपलपाते ज्वालामुखी
तब्दील
हो जाती है कविता।
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
चीते बने शब्दों को ।।
वे
संसद में रखी हुई कुर्सियों पर
बैठी
हुई आकृतियों में
तब्दील
करना चाहते हैं कविता को।
वे
चाहते हैं कि हर शब्द
उनका
दाया और बाया बाजू हो
और
भाषा उनके लिए
पिस्ता
बादाम, काजू हो।
वे
चीते बने शब्दों की
खतरनाक
छलांग को
दाना
कुटकते हुए कबूतर की चाल में
तब्दील
करना चाहते हैं
वे
चाहते हैं कि कविता के
खूंख्वार
जबड़े
उनकी
गर्दनें दबोचने से पहले
कबूतर
की चोंच में बदल जायें।
या
फिर उनकी खातिर
एक
मासूम चिडि़या में
तब्दील
हो जाये कविता
और
वे उसने सामने
प्रलोभनों
के
अनाज
के दानों के
आईने
रख दें।
वे
चाहते हैं कि
कविता
सिर्फ
अपने
प्रतिबिम्ब से लड़ती रहे।
उनकी
ख्वाहिश है कि
कविता
उनसे
कॉलगर्ल
की तरह पेश आये।
कविता
के बारे में
बहुत
कुछ गलतफहमियां
पाल
रखी हैं उन्होंने
वे
शब्दों के भीतर
छुपे
हुए खजरों से
वाकिफ
नहीं है शायद
लगता
है उनकी नाक तक
नहीं
पहुंच पायी है
कविता
की विस्फोटक गंध।
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
ऐ दोस्त हंसी आती है ।।
आज
जबकि
इस
देश के भीतर
ज्वालामुखी
की तरह
सुलग
रही है साम्प्रदायिकता,
पानी
की तरह बह रहा है
आदमी
का खून।
गाय
और सूअरों को लेकर
एक
दूसरे पर
गोलियां
दाग रही है
धर्मान्धों
की भीड़।
कवि
भी कविता को
उन्मादियों
के पक्ष में
चाकू
की तरह
निर्दोषों
की आंतों में
उतार
रहा है।
घिनौनी
राजनीति से
अपने
चिंतन को
संवार
रहा है।
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
वह आदमी ।।
कहां
लेटा है वह आदमी
वह
आदमी कहां लेटा है?
जिसके
साथ
हो
रहा है अत्याचार
जिस
पर पड़ रही
चाबुकों
की मार,
कहां
लेटा हे वह आदमी
वह
आदमी कहां लेटा है?
कविता
उसकी
मरहमपट्टी
करना
चाहती है
कविता
उसके
जख्मों को
भरना
चाहती है
कहां
लेटा है वह आदमी
वह
आदमी कहां लेटा है....?
जिसके
कल रात
मशीन
के हादसे में
कट
गये थे दोनों हाथ
कविता
उसे
नये हाथ
जुटाना
चाहती है
कहाँ लेटा है वह आदमी
वह
आदमी कहां लेटा है
अपने
भूखे
बीबी
बच्चों के साथ
कविता
उसके लिए
लेकर
आयी है
रोटी
दाल भात।
कहां
लेटा है वह आदमी
वह
आदमी कहां लेटा है...?
जिसकी
सांसों के साथ
बलात्कार
कर गया है
चिमनियां
का धुआं
बड़ी
त्रासद है
जिसकी
जि़ंदगी की दास्तां
कहां
लेटा है वह आदमी
वह
आदमी कहां लेटा है...?
आत्याचार
भूख
कटे
हुए हाथ
गले
हुए फैफड़ों के साथ।
कविता
करना चाहती है
करना
चाहती है कविता
उससे
दो घड़ी बात।
क्या
वह आदमी
पहचानता
है कविता को?
कविता
उसे
पहचान
रही है लगातार
कहां
लेटा है वह आदमी
वह
आदमी कहां लेटा है।
-रमेशराज
-मुक्तछंद-
।।
कविता के बीच ।।
अभी
आदमी जिंदा है
जिंदा
है अभी आदमी
कविता
बीच।
शैतान
नहीं मार सकता
उस
आदमी को |
अत्याचारी
नहीं उछाल सकता
उस
पर चाबुक |
बन्दूकधारी
नहीं दाग सकता
नहीं
दाग सकता बन्दूकधारी
उस
पर गोली |
अभी
आदमी जिंदा है
जिंदा
है अभी आदमी
कविता
के बीच।
उसके
साथ
क्रान्ति
की मशाल
लेकर
चल रहे हैं
मुक्तिबोध
धूमिल
और दुष्यंत
अत्याचारी
नहीं कर सकते
नहीं
कर सकते अत्याचारी
उस
आदमी का अंत,
अभी
आदमी जिंदा है
जिदां
है अभी आदमी
कविता
के बीच।
वह
रोटियों की तरह
बांट
रहा है कविता को
खेतों
में खलिहानों
श्रमिकों
में-किसानों में,
वह
दाल भात की तरह
पका
रहा है कविता को
अभी
कविता जिंदा है
जिदां
है अभी कविता
उस
आदमी के बीच।
-रमेशराज
।।
अब कविता ।।
कविता
अब
बेताब
हो रही है
हथियार
उठाने के लिए
शब्दों
के बीच
बारूद
उगाने के लिए।
अब
साफ-साफ
गिने
जा रहे हैं
फावड़े
और कुदालें
दुश्मनों
की साजिशों का
रहस्यतंत्र
तोड़ते हुए
सत्ता
के झूठे आकड़ों का
हिसाब
जोड़ते हुए।
आदमी
के जज्बात
कविता
के बीच
अखबारों
में
बढ़ती
हुई चीजों के भाव
लहलहाते
खेतों के बीच
खुर्पी
चलाते हुए
होरीराम
के ऊपर तनी हुई
शोषण
की बन्दूक
धनियां
के साथ बलात्कार
पुलिस
के अत्याचार
आदमी
की गर्दन पर
मुसलसल
लटकी हुई
साजिशों
की तलवार
बुझे
हुए चूल्हे, खाली पतीली
आंतों
में फैलती हुई
भूख
जहरीली
सत्ता
के आदमखोर पंजे
और
भी कसते हुए
रासुकों
के शिकंजे
यानी
सब कुछ समेटे है
किसी
पिनकुशन-सी
अपने
भीतर कविता।
कविता
अब
यह
भी जान रही है
इस
मुल्क में
अपनी
हड्डियों को
बासी
रोटी की तरह
चबा
रहे हैं भूखे बच्चे
रोटी
के अभाव में
मां
के सूखे स्तनों को
रबर
की तरह
खींचे
जा रहे हैं भूखे बच्चे।
किसी
भावुक ममता की मूरत
मां
की तरह
लोरिया
गा रही है
झुनझुना
बजा रही है
आंसू
बहा रही है
आज
कल कविता।
यहां
तक कि शब्द
राशन
की दुकानों पर
लम्बी
कतारों में
खड़े
हो गये हैं
भूखे
बच्चों की खातिर।
संवेदनशील
बाप की तरह
कविता
अब
पहचानने
लगी है
किसके
गोदाम में सड़ रहे हैं
मिर्च-धनिया-प्याज
कहां
बिक रही है
सौ
रुपये किलो सब्जी।
किसी
घोड़े के मुंह को
लहूलुहान
कर रही है
लोहे
की लगाम।
किस-किस
चीज को
खरीद
रहा है दाम।
डकैती
हिंसा-तस्करी
भ्रष्टाचार,
बलात्कार
जबरदस्त
कोहराम के बाबजूद
हादसों
से बेखबर
कहां
खर्राटे भर रही है
शासन
की नाक।
किस
झौपड़ी से
गायब
हुई एक लड़की
और
कहां हुई है दुर्घटनाग्रस्त।
राजधानी
में
किसी
नेता के बंगले पर
फाइव
स्टार होटल में
चम्बल
की घाटी में
बुर्जी-बिटौरे
या
खड़ी फसलों के बीच
कहां
हुआ है
उस
लड़की के साथ बलात्कार
जिसका
नाम है कविता।
साम्प्रदायिक
तनाव के बीच
जहां
आदमी
आदमी
नहीं रहता
हो
जाता है
हिन्दु
या मुसलमान
कविता
इस दुश्चक्र को
पहचान
रही है श्रीमान।
घृणा-द्वेष-चाकू
रक्तपात
पथराव
आदमी
की पसली में
रिसता
हुआ घाव
बहुत
बड़ी त्रासदी है
कविता
के लिए |
कविता
सिर्फ चाहती है
साम्प्रदायिक
सद्भाव।
-रमेशराज
-------------------------------
-रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-२०२००१
मो.-९६३४५५१६३०
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