Friday, July 29, 2016

रमेशराज की 23 मुक्तछंद कविताएँ




रमेशराज की 23 मुक्तछंद कविताएँ  
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1.
।। शंखनाद के बाद ।।
मेरी आस्थाओं के फैफड़ों में
कफ की तरह पनपने वाले
थोथे अहं के शिकार
ओ मेरे कथित पालनहार !  
मैं  यानी अश्वस्थामा
तुम्हें बलगम की तरह थूकने से पहले
एक सवाल करता हूं
कि कैसा है यह महायुद्ध
कैसी है तुम्हारी महाक्रान्ति
जिसमें तुम
छुप-छुपकर बार करते हो
टीबी के कीटाणुओं की तरह
अनगिन प्रहार करते हो।
तुम्हारे सामने
एण्टीट्यूबरकुलर-सा खड़ा
मैं यानी अश्वस्थामा
अब नहीं लड़ना चाहता कोई धर्मयुद्ध
नहीं देखना चाहता कोई  महाक्रान्ति,
जिसमें हर शंखनाद के बाद
खंडित हो जाता है
मेरे पिता का तप-विश्वास
जिसमें जंगल उग आता है
आंखों के आस-पास।

मेरी संवेदनाओं में कोढ़-सा फूटने वाले
ओ मेरे कथित पालनहार !
मैं यानी अश्वस्थामा
तुम्हें इस धर्मयुद्ध में
महानपुसंक घोषित करता हूं
तुमसे न लड़ पाना मेरी मजबूरी है
पर यह मत कहना
मैं डरता हूं।
-रमेशराज


2.
।। अधिकारी ।।
न्याय की कुर्सी पर बैठा
एक अधिकारी
जब अपनी सम्वेदनाओं
सीमाओं के बीच
तड़पते हुए न्याय करता है
तो लगता है
वह अधिकारी
अधिकारी नहीं
जाड़े के दिनों में
किसी गरीब के आंगन में आयी
सुबह की वह धूप है
कविता में जिसका नाम
मोहन स्वरूप है।

चूंकि वह नहीं ओढ़ पाता है
मेरी हुई कविता का चरित्र
इसीलिये वह मरी हुई
संवेदना वाले चरित्रों के लिये
वह चोर है, डाकू है
चंगेज खां है, हलाकू है।

बहरहाल
वह एक ऐसा लड़ाकू है
कि कविता से बाहर नहीं है
उसकी लड़ाई।

मैं सच कहता हूं भाई
वह लड़ता है
कविता से लेकर
अपने जीवन तक
उस रसात्मक-बोध के खिलाफ
जिसकी निष्पत्ति
अय्याशी का आभास देती है।
जो किसी ईमानदारी को
रति के नाम पर
कोठे पर बिठा देती है।।

वह लड़ता है
उस थोथे साहस के खिलाफ
जिसमें वीरत्व
किसी गरीब की झोंपड़ी उजाड़ता है
युद्धकौशल के नाम पर
किसी असहाय को पछाड़ता है।

चूंकि उसके पास तर्क है
इसलिये वह मरी हुई संवेदना वाली
कविता के चरित्र पर
सही चोट करता है,
बहरहाल
वह एक ऐसा ज्वालामुखी है
जो बेईमान व्यवस्था के
असंवेदनहीन माहौल में
ईमानदार संवेदना का
विस्फोट करता है।

निर्बलों-सा निर्बल
बहादुरों-सा बहादुर
उसका अपना
निराला व्यक्तित्व
टूटता है-जूझता है
झुकता नहीं।
संघर्ष के रास्ते पर
अनवरत चलता है
रुकता नहीं।

उसकी जि़न्दगी में
आदर्श हैं, उसूल हैं
प्यार की सुगंध है
आस्था के फूल हैं |
कुल मिलाकर
वह एक ऐसा वसंत है
जिसकी महक में
न आदि है, न अन्त है।

सच बात तो यह है कि-
शासन-प्रशासन का
वह एक ऐसा वित्त अधिकारी है
जिसकी जि़न्दगी में
तंगी है महंगाई है
दर्द है बीमारी है।

उसने झेली है अन्याय की पीड़ा
उसने झेला है अनवरत शोषण
इसीलिये दहकता है
उसकी संवेदना का कण-कण।

बहरहाल
कविता में वह एक
ऐसा आदमी है
जिसे हार्टअटैक होना लाजिमी है।

उसने लिखी हैं
हार्टअटैक पर कविताएं
कविता में उभरी हैं
अनगिनत चिन्ताएं |

उसकी कविता से
बाहर नहीं है
मेरी कविता की संवेदना।
मेरी कविता से
बाहर नहीं है
उसकी कविता की धूप
वह यानी मोहन स्वरूप।
-रमेशराज


-3.
।। अधिकारी-2 ।।
न्याय की कुर्सी पर बैठा
एक अधिकारी,
जिसकी हो चुकी हैं
सारी की सारी आदतें हत्यारी,
अपने को हत्यारा कहलाने से
निरंतर बचता है,
ईमानदारी-नैतिकता के
नये-नये ब्यूह रचता है।

न्याय की कुर्सी पर बैठा
एक अधिकारी
ऐसा है चमत्कारी
कि उसका संतई जादू
पूरे शहर पर जारी है
ऐसे में किससे कहूं
कैसे कहूं
कि वह एक ऐसा ब्रह्मचारी है
जिसकी कविता में
शिफलिस की बीमारी है।

न्याय की कुर्सी पर बैठा
वह अधिकारी
है एक ऐसा आदर्शवादी
जो जनता के रोटी और लंगोटी के
सुनहरे भविष्य का
बड़ ही चतुराई से
धीरे-धीरे खून करता है,
सच बात तो यह है
कि उसका हर कथित नेक इरादा
गरीब की आतों में
चाकू की तरह उतरता है।

सदाचार के किस्सों से
भरी हुई उसकी भाषा
हिंसक वृत्तियों
अपराधी इरादों का
एक ऐसा स्वागत द्वार है
जिसके दरवाजों पर
स्वास्तिक के चिन्ह हैं
प्यार है , नमस्कार है।
-रमेशराज


-4.
।। क़ाग़ज के सपने ।।
मलवे के ढेर से
कागज बटोरकर
जब भी वह झोली में डालती है
तो कागज और जि़न्दगी के बीच
एक सपना पालती है।

वह नहीं पहचानती
कागजों पर लिखी इबारत
वह नहीं पढ़ती
कविता कहानी उपन्यास
या पाठ्य पुस्तकों के
बिखरे हुए अंश
या किसी का प्रेमपत्र
जो उसे मलवे के ढेर से
अनायास मिलते हैं।

उसके लिये तो
कागज के अर्थ
सिर्फ इतने निकलते हैं
कि कागज, कागज होता है
जो उसकी जि़न्दगी में
एक सपना बोता है।
-रमेशराज

-5.
।। हंसो बेशर्मो! ।।
हम तुम्हारी पाठशालाओं में
ऐसी शिक्षानीति पढ़े हैं
कि चाहे जिस कोण से
परखो हमें
हम ऐसे चिकने घड़े हैं
कि हम पर नहीं होता
नहीं होता हम पर
किसी भी सही बात का असर।

हम इस युग के ऐसे अजगर
कि सैकड़ो मूल्यों, सिद्धान्तों
आदर्शों को निगल गये
फिर भी सुरसा-सा मुंह फैलाये
टकटकी बांधे
एक अन्धा जुनून
बैठा है हमारी हवस पर।

तुम्हारे स्वार्थों की माटी में
रचे-बसे-पले
हम यानी आदमखोर
लफंगे तस्कर चोर
तुम्हारी हर करतूत को
सराहेंगे
तुम्हारे काले कारनामों को
दशेभक्ति का
बेहतरीन नमूना बतायेंगे।

हम नहीं उठायेंगे
इस बात पर विरोध
कि तुमने हर नैतिकता का
क्यों किया चीरहरण
सदन की आवश्यक
कार्रवाइयों के बीच
किसलिये बने रहे कुम्भकरण।

ठीक तुम्हारी ही तरह
हमारे भीतर भी
नहीं है अब
नैतिक संवेदना की
कोई सतह।
हमारी निर्ल्ल्जता
अपनी बेहयाई पर
हंसो बेशर्मो
बेशर्मों हंसो
और ठहाके लगाते हुए
हमारी सभ्यता
हमारे मूल्यों
हमारे आदर्शों को डसो।
हंसो बेशर्मो हंसो।
-रमेशराज


-6.
।। हत्यारे ।।
हमारे मुहावरे लोकोक्तियों
मिथकों प्रतीकों के बीच
बस गये हैं हत्यारे

अब हम उन्हें
कविता को तरह पढ़ते हैं
प्यार की किताबों में,
अब हम उन्हें
खुशबू की तरह पाते हैं
जि़न्दगी के गुलाबों में।
हमारे
सोचों विचारों के बीच
उठते, बैठते, जागते, सोते
रहते हैं हत्यारे।

हत्यारे अब नहीं रहे
पहले जैसे हत्यारे,
वे बन गये हैं
हमारी रुचियों के बीच
एक आत्मीय रिश्ता।
इस तरह वे
कत्ल कर रहे हैं
हमें आहिस्ता-आहिस्ता ।
-रमेशराज

-7.
।। प्लेग की तरह।।
अन्तहीन मृगतृष्णा भोगती हुई नयी पीढ़ी
खोजती है जलकुंड-सुविधा के / अधिकारों के।
व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर
उपलब्ध होते है / आंसू और क्रंदन
जलते रेत पर दौड़ते है दूर तक / आस के हिरन
विचार / दिमाग र्में चाकू की तरह तनते हैं
अन्दर जैसे होता है / रक्तपात।
आजकल आदमी सिर्फ उपयोगी है / चूहे की अर्थों में
दबे पांव आती है राजनीति बिल्ली-सी,
फैल जाना चाहते हैं बुद्धिजीवी सिस्टम पर
प्लेग की तरह।
-रमेशराज


-8.
।। नेता होना ।।
तुम इसे अपनी एक अलग पहचान कह सकते हो
मेरे दोस्त आदमी के बीच।
में इतना कहूँगा कि
मलवे के ढेर पर एक कुकुरमुत्ता उग आया है।
तुम्हारे लिए देश एक मेमना है
जिसको सदन  में बैठकर  
तुमने रोज खाया है।
-रमेशराज


-9.
।। प्रजातंत्र।।
आजकल समाजवाद एक अदृष्य चाकू है
प्रजातंत्र के पेट में घुसता हुआ
या कोई अम्ल है आदमी में
अन्दर तक चुभता हुआ।
-रमेशराज


-10.
।। अवाम।।
हिंसा / डकैती / चोरी
इस मुल्क का परिणाम
मक्खियों-सा टूटता है
अखबारों पर सुबह से अवाम।
-रमेशराज


-11.
।। आत्महत्या-बोध।।
आजकल जि़न्दगी जोंक है
कांच की किर्चों के बीच
मुसलममल फंसी हुई / लहुलुहान
अन्दर के / बाहर के
नुकीले अहसास से लड़ती हुई।
आदमी भोगता है रिश्तों के पानी में
झींगुरों-सा बार-बार आत्महत्या-बोध।
परिचय की पानी पर तैरती  है लाश
लद जाता है अन्जाने बोझ से
टूटे हुए कन्धों पर उम्र का अहसास।
वक्त / सोडियम है
नम हुई आंखों के बीच जलता हुआ
नमक सा गलता हुआ।
जीना / बस जैसे हो सुबह से शाम तक
रोटी की तलाश।
अम्ल सा चुभता है बार-बार आतों में
पेट का उपवास।
आजकल जिदगी अंगूठा है युधिष्ठर का
गलता हुआ,
चुटकी-भर सुविधा में
अगरबत्ती-सा महकता हुआ।
-रमेशराज


-12.
।। चीरहरण।।
प्रभु! आज गरीब
लगातार गरीब होता जा रहा है
अमीर लगातार अमीर,
हर जगह खिंच रहा है द्रौपदी का चीर।
तुम फिर भी चुप हो !!

सुना है तुमने
पहले एक अत्याचारी रावण को मारा था,
जनता को उसके आतंक से उबारा था।
आज तो सैकड़ों रावण हो गये है,
आप कुछ भी नहीं करते
रावणों की बात तो छोड़ो,
आप से छोटे-छोटे राक्षस भी नहीं मरते |

तुमने कहा था-
जब-जब पाप बढ़ते हैं / अधर्म होता है
मै जन्म लेता हूं
पापियों को चुन-चुनकर
खूब दंड देता हूं।

आज तो भ्रष्टाचारी, तस्कर, गुण्डे, बलात्कारी
आदमी की जिन्दगी में डट के जहर घोल रहे हैं
आप उनके खिलाफ
अफसोस कुछ भी नहीं बोल रहे हैं |

ऐसा लगता है प्रभु तुम भी
समाज विरोधी तत्वों के हाथ बिक गये हो।
तभी तो उन्हें दौलत का खजाना लुटा रहे हो
चूस-चूस कर खून मुल्क के गरीबों का
मन्दिर / मस्जिद बनवा रहे है।
जबकि गरीब तरस रहा है रोटी को
कफन को, मकान को, बदन पर लगोटी को।
-रमेशराज


-13.
।। समूचे अस्तित्व के साथ।।
जब सासों में एक गहरा अफसोस
किसी जख्म सा बढ़ता है,
एक अन्जानी जलालत खूबसूरत चेहरों  को
चेचक की तरह चुग जाती है,
एक आत्महीनता भट्टी की तरह दहकती है
भूख आंतों में लगातार सुलगती है
जिन्दगी / गन्दे मवाद की चिपचिपाहट के अलावा
कुछ भी नहीं लगती,
तब / आदमी सम्भवतः
स्वयं से / स्वयं को किसी तलवार की तरह
खींचने लगता है।
और फिर सड़ांध-भरी व्यवस्था पर
चोट करता है-
पहली बार अपने समूचे अस्तित्व के साथ |
-रमेशराज


-14.
।। पुनः उसी आकार में।।
एक अजनवीपन जो चेहरे पर
जंगल की तरह उग आया था,
जिसमें संशय के सांप / आत्महीनता की मकडि़यां
दर्दों के अजगर / आतंक के बिच्छू
अपना डेरा डाले हुए थे,
घातें / प्रतिघातें करते हुए
यकायक न जाने कहां गायब हो गये हैं
और वो चेहरा जिस पर जगंल उग आया था
पुनः हरी-भरी गुलाब की खेती में तब्दील होने लगा है।
अब बुलबुल, गौरइया, मैना, कोयल, तितिलियां
मुझे देखकर मुंह नहीं बिचकातीं
फुर्र से उड़ नही जातीं
मेरा अंग-अंग सहलाती हैं
मेरी फुनगियां पर बैठकर सावन का मल्हारें गाती हैं।
-रमेशराज


-15.
।। तब और अब।।
पहले जब भी मैं तुम्हारे बारे में सोचता था
जबकि में बच्चा था
तुम्हें देखने की लालसा यकायक तीव्र हो उठती थी
निगाहें अखबार में प्रकाशित तुम्हारे फोटो पर टिक जाती थीं
कान लटक जाते थे रेडिया से।
और तुम्हारे शब्द एक-एक कर अंकित होने लगते थे
दिमाग में किसी टेपरिकार्ड की तरह।

अब जब भी मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूं
जबकि जवान हो गया हूं / अबोध नहीं रहा हूं-
तुम्हारे भाषणों, तुम्हारे वक्तव्यों को लेकर उत्तजित हो उठता हूं
कान सरसराने लगते हैं
गले से एक पाशविक गुर्राहट शुरू हो जाती है।
आखों से उतरता है / अग्निप्रपात
चेहरे पर जम जाती है घृणा की मोटी पर्त।
हाथ अन्जाने ही फौलाद हो जाते हैं
पूरा जिस्म बारूद की-सी गंध छोड़ने लगता है।
-रमेशराज


-16.
।। दोगला अस्तित्व।।
वाकई जब तुम इस चमकदार कुर्सी पर
बैठे होते हो दोस्त!
तो तुम्हारी आवाज में एक अजीब तरह की
गुर्राहट होती है,
तुम्हारी आखें / बल्ब में लगे टगंस्टन के तार की तरह
सुर्ख हो जाती हैं,
चेहरा यकायक रबर-सा तन जाता है।

तुम्हारे लिए
यौन-सुख, ख्वाहिशें, अय्याशियां
रिश्वतें, वैश्यावृत्तियों के सन्दर्भ
गर्मी के दिनों में कुहरे की तरह
एकदम चुक जाते हैं ।
उस वक्त तुम में साफ देखा जा सकता है-
एक अभ्रष्ट व्यक्तित्व / एक जबरदस्त स्वाभिमान ।

पर इस कुर्सी से उतरते ही तुम्हारे चेहरे पर
एक अजीब-सी कामुकता गर्म तारकोल की तरह
उतरने लगती है।
-रमेशराज


-17.
।। अहं।।
वह जो हमारे जिस्म में जरा-सा अंधेरा होते ही
किसी चोर की तरह घुस जाता है
और फिर हमारी आस्था, हमारे विवेक
हमारी आत्मा को किसी तिजोरी की तरह तोड़ने लगता है।
कभी-कभी यकायक उजाला होने पर
वह रंगे हाथों पकड़ा जाता है।
हम उसे पहचानते ही भौचक्के रह जाते हैं।
क्योंकि वह कोई ओर नहीं हमारा अंह होता है
हमसे घातें / प्रतिघातें करता हुआ
जरा-सा अंधेरा होते ही हमको छलता हुआ।
-रमेशराज


-18.
।। शब्दनाद ।।
आदमी जब थोथे आश्वासनों के बीच
जि़न्दगी जीने लगता है,
सुविधाओं / व्यवस्थाओं के नाम पर
मीठा जहर पीने लगता है,
उस वक्त और गहराने लगता है
भूख और आदमी का सम्बन्ध |

ऐसे में बहुत मुश्किल हो जाता है
सच-सच बता पाना कि-
आदमी भूख को मारता है
या भूख आदमी को,
आश्वासन आदमी को छलते हैं
या आदमी आश्वासनों को।

भाषा / आदमी के खिलाफ
एक षड्यंत्र है
या आदमी भाषा के खिलाफ?
भाषा जो रोटी नहीं है
आदमी उसे खाता है
और फिर अन्त में
आदमखोर भाषा और व्यवस्था के खिलाफ
तन के खड़ा हो जाता है।
-रमेशराज


-19.
।। कटी हुयी मुठ्ठियां ।।
जब आवश्यकताएं
खून में आग की तरह सुलगती हैं,
भूख दीमक की तरह
आदमी को चाटने लगती है,

जब भाषा / कोकशास्त्र की पुस्तक से
गोर्की या प्रेमचन्द्र की ओर मुड़ती है
अथवा मार्क्स के दिमाग से होकर गुजरती है,
तब हर चीज को एकदम नंगा करके देखती है।
-रमेशराज


-20.
।। साजिश।।
ये तो कोई बात नहीं कि जो तुमसे
रोशनी का हक मांगे
तुम उसकी आंखें फोड़ दो
या उनमें तेजाब भर दो,
और इस तरह रोशनी मांगने वाले को
रोशनी देने से पहले पूरी तरह अन्धा कर दो।
देश-भर में महिलावर्ष मनाओ
और महिलावर्ष मनाते-मनाते
महिलाओं के साथ बलात्कार कर जाओ।

सुनो ऐ दोस्त!
बहुत दिन वहीं चलने वाली तुम्हारी ये तानाशाही
तुम्हें अपने ये तौर-तरीके बदलने ही होंगे ये दोस्त!
तुम्हें खत्म करना ही होगा ये दमनचक्र
वर्ना वो दिन दूर नहीं
जब तुम्हारी साजिशों का शिकार
शोषित / पीडि़त / अपमानित आदमी
तुम्हारे सभी छदम् मुखौटे उचाल कर फेंक देगा
और तुम्हें / तुम्हारे असल रूप में नंगा खड़ा कर देगा।
तुम्हारे हाथ में लगे हुए सारे खंजर
पलक झपकते तोड़ देगा।
-रमेशराज


-21.
।। छलांग।।
दरअसल अब भाषा
बुजदिलों का एक हथियार बन गयी  है
और नपुसकों का कवच।
जिसे वे हमारे खिलाफ लगातार प्रयोग कर रहे हैं
अपने को सुरिक्षित रखते हुए।

कमाल ये है
कि आदमी पर / हथौड़े की तरह
पड़ रही है / शब्दों की चोट,
फिर भी न कहीं रक्तपात दिखता है
न लोगों की आखों में खूनी उबाल आता है।

लोग अपने ऊपर हुई यातनाओं का
जश्न मना रहे हैं,
अन्दर तक टूटे हुए हैं
पर वसंत-गीत गा रहे हैं।

मैं हर त्रासद स्थिति के खिलाफ
एक जबरदस्त छलांग लगा देना चाहता हूं
आदमी की आतों में रोटी की तरह
फंसी हुई भाषा को, जो भूख नहीं लगने देती,
चेतावनी की चिमटी से बाहर खींच ले आना चाहता हूं

शब्द जो देखते ही देखते
किसी आदमखोर जबड़े में
यकायक तब्दील हो जाते हैं
उनकी असलियत भाषाजीवियों के सामने
रख देना चाहता हूं।

भाषण / नारे / पोस्टर
जिन्हें पढ़कर इस मुल्क की जनता
मंत्रामुग्ध हो जाती है
चन्द सुविधाओं को कड़कड़ाते जाड़े में
किसी गर्म कि लिहाफ की तरह
ओढ़कर रात को चुपचाप सो जाती है
सुबह जब जागती है तो अक्सर
निमोनिया खासी, जुकाम की शिकार हो जाती है

जनता को अब समझना चाहिए कि-
यह व्यवस्था की धूप
कभी चंगा नहीं कर सकती।
केवल सक्रामक रोगों को बढ़ाती है।
-रमेशराज

-22.
।। अब रोज़ ।।
अब रोज
हिन्दुस्तान के नक्शे पर
एक भयंकर आग की भाषा में लिखे जाते हैं
अनगिनत आत्मदाह / अनगिनत दुर्घटनाएं |

अब रोज
प्रजातंत्र के खूबसूरत चेहरे को
सामूहिक स्थलों पर हुई
कुछ गांधीवादियों को आमसभा
चेचक की तरह चुग जाती है

अब रोज
नारों / आश्वासनों के बाजार में
भाषा के पीछे दौड़ता हुआ आदमी
शाम हुए घर लौटने पर
दिन भर की सारी उपलब्धियों को
अपने भूख से बिलखते बच्चों के बीच
किसी फटे हुए दूध की तरह पाता है।

अब रोज
इस आजाद मुल्क की आजाद दीवारों पर
नये-नये काले कानूनों के बदचलन कुत्ते
सीना तान कर पेशाब करते हैं,
और आदमखोर नेता गिद्ध की तरह
जनहित की हड्डियां नोचने लगते हैं।
-रमेशराज


-23.
।। फिलहाल ।।
फिलहाल मैं जूता हूं तुम्हारे पांव का
गर्म रेत / तारकोल / जलती सिगरेट
गोबर / कीचड़ / कील / कांच से
तुम्हें बचाता हुआ |

फिलहाल / तुम मुझे
पोलिश करा सकते हो
अपनी आवश्यकतानुसार
जहां-जहां फटा हूं ? टांके मरवा सकते हो।

तुम्हारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है
मैं यह सब हंस कर सह लूंगा,
फिलहाल मैं जूता हूं तुम्हारे पांव का।

कई बार ऐसा भी तो हुआ है
आधी रात सड़कों पर
भोंकते हुए कुत्तों के खिलाफ
तुमने मुझे इस्तेमाल किया है
एक जबरदस्त ठोकर के साथ,
उनके पेट पर।
मैं फिर भी चुप रहा हूं
ईट पत्थर ककड़ों से
मैं ही तो लड़ा हूं
तुम्हें घायल नहीं होने दिया
फिलहाल मैं जूता हूं तुम्हारे पांव का।

अच्छा चलो एक काम करते हैं-
तुम जूता हो जाओ मेरे पांव का,
मैं तुम्हें पहनूंगा।
तुम जहां-जहां उधड़े हो
टांके पड़वाता हूं
मैं तुम जाता हूं।

चलो एक और काम करते हैं दोस्त!
तुम बैल हो जाओ और मैं एक किसान।
तुम्हें वसंत की प्रतीक्षा है और मुझे भी।
हम तुम खेत जोतते हैं
सरसों उगाते हैं, सूरजमूखी बोते हैं।
तुम चुप क्यों हो दोस्त ?
सुनो मैं जूता नहीं तुम्हारे पांव का,
फिलहाल मैं काटा हूं
तुम्हें पोर-पोर सालता हुआ।
-रमेशराज
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर , अलीगढ़

मो.-9634551630

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